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लोकतंत्र की शुचिता के सामने सवाल।

श्रवण कु० गौड़ 8 months ago 0 9
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न केवल दागी उम्मीदवार चुनाव मैदान में उतर रहे हैं,बल्कि धनबल काइस्तेमाल भी बढ़ रहा है ||

मतदाताओं को होना होगा जागरूक।

लोकतंत्र की शुचिता के सामने सवाल ?

 

दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र भारत, आम चुनाव के दौर से गुजर रहा है।

विश्वसनीय चुनाव किसी भी राज्यव्यवस्था के लोकतांत्रिक माने जाने के लिए एक आवश्यक शर्त हैं। चुनाव प्रक्रिया की शुचिता बनाए रखने के लिए बहुआयामी दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है, जिसमें राजनीति में धन और आपराधिक तत्वों के प्रभाव को दूर करना एवं राजनीतिक दलों के कामकाज में पारदर्शिता सुनिश्चित करना शामिल है। हमारी जीवंत लोकतांत्रिक प्रक्रिया की सतह के नीचे कुछ चिंताएं भी छिपी हैं-जैसे बढ़ता अपराधीकरण, धनबल का उपयोग और चुनावी कदाचार। भारतीय लोकतंत्र के सामने सबसे गंभीर मुद्दों में से एक राजनीति और अपराध के बीच बढ़ती साठगांठ है। पिछले कुछ वर्षों में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों की संख्या में वृद्धि हुई है। एक गैर- सरकारी संगठन एसोसिएशन फार डेमोक्रेटिक रिफार्म्स (एडीआर) द्वारा चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों की प्रोफाइल के विश्लेषण से पता चलता है कि 2009 में उनके खिलाफ लंबित मामले कुल उम्मीदवारों के 15 प्रतिशत थे, जो 2014 में 17 प्रतिशत और 2019 में बढ़कर 19 प्रतिशत हो गए। चुनाव जीतने में सफल रहे आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों का अनुपात और भी गंभीर तस्वीर पेश करता है। 2009 में विजयी उम्मीदवारों में से 30 प्रतिशत ऐसे थे, जिन्होंने अपने खिलाफ आपराधिक मामले घोषित किए थे। 2014 में विजयी उम्मीदवारों में से 34 प्रतिशत और 2019 में 43 प्रतिशत के खिलाफ आपराधिक मामले थे। इनमें से बड़ी संख्या में उम्मीदवार हत्या, दुष्कर्म और भ्रष्टाचार जैसे गंभीर आपराधिक आरोपों का सामना कर रहे थे। एडीआर के अनुसार, 2019 में चुने गए 29 प्रतिशत सांसदों पर गंभीर आपराधिक आरोप थे, जबकि 2014 में यह आंकड़ा 24 प्रतिशत था। इस बार भी बड़ी संख्या में दागी प्रत्याशी चुनाव मैदान में उतर रहे हैं। पहले चरण में उनका प्रतिशत 16 था, दूसरे में 21 और तीसरे में 18 प्रतिशत।

संसद में दागी जनप्रतिनिधियों की उपस्थिति न केवल लोकतंत्र की छवि को धूमिल करती है, बल्कि उनके द्वारा प्रदान किए जाने वाले शासन पर भी सवाल उठाती है। यह स्थिति कानून के शासन को कमजोर करती है और राजनीतिक व्यवस्था में जनता के विश्वास को खत्म करती है। हालांकि लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा आठ दोषी नेताओं पर प्रतिबंध लगाती है, लेकिन मुकदमे का सामना करने वाले नेता चुनाव लड़ने के लिए स्वतंत्र हैं, भले ही उनके खिलाफ आरोप कितने भी गंभीर क्यों न हों। दागी नेताओं को टिकट देने से इन्कार करने की बात तो दूर, सभी पार्टियां अपने द्वारा चुनाव मैदान में उतारे गए दागी नेताओं की संख्या में एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा करती दिखती हैं। इस मुद्दे से निपटने का एक तरीका यह है कि देश में न्यायिक प्रक्रिया में तेजी लाई जाए, ताकि आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों को चुनाव लड़ने से रोका जा सके। भारत में चुनावी प्रक्रिया के लिए एक और महत्वपूर्ण चुनौती धनबल का बड़े पैमाने पर उपयोग है। भारत में चुनाव महंगे हो गए हैं और उम्मीदवार अक्सर धन जुटाने के लिए अवैध तरीकों का सहारा लेते हैं। धनबल का प्रयोग न केवल समान अवसर छीन लेता है, बल्कि लोकतंत्र के सिद्धांतों को भी कमजोर करता है। यह धनी उम्मीदवारों को अपने विरोधियों पर अनुचित बढ़त बनाने की सुविधा देता है, जिससे सीमित वित्तीय संसाधनों वाले उम्मीदवारों के लिए प्रभावी ढंग से प्रतिस्पर्धा करना मुश्किल हो जाता है। इसके अलावा चुनावों में काले धन के इस्तेमाल का अर्थव्यवस्था पर गंभीर प्रभाव पड़ता है। यह भ्रष्टाचार के चक्र को कायम रखता है और अवैध वित्तीय प्रवाह को रोकने के प्रयासों को कमजोर करता है। धन बल के सहारे चुनाव जीते प्रतिनिधि जनता के हितों की तुलना में अपने धनदाताओं के हितों को प्राथमिकता दे सकते हैं। यह चिंताजनक है कि इस बार पहले चरण के मतदान के पूर्व ही मतदाताओं के बीच बांटी जाने वाली शराब, आभूषण, मादक पदार्थ और नकदी पिछले चुनाव के मुकाबले कहीं अधिक मात्रा में बरामद की गई। स्पष्ट है कि चुनाव खत्म होते-होते ऐसी बरामदगी कहीं अधिक होगी। हालांकि उम्मीदवारों के खर्च की एक सीमा तय की गई है, लेकिन पार्टी के खर्च की कोई सीमा नहीं है। बड़ी पार्टियां आमतौर पर प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र में उम्मीदवारों की सीमा से अधिक पैसा खर्च करती हैं। इसे रोकने के लिए चुनाव खर्च पर मौजूदा कानूनों को और अधिक प्रभावी बनाया जाना चाहिए। राजनीतिक दलों द्वारा किए गए खर्चों पर एक सीमा होनी चाहिए। जो उम्मीदवार निर्धारित समय के भीतर चुनाव खर्च दर्ज करने में विफल रहे, उसे दंडित किया जाए और यदि वह चुनाव जीत गया हो तो उसे शपथ लेने से रोक दिया जाए। अपराधीकरण और धनबल के अलावा, चुनावी कदाचार भी चुनाव प्रक्रिया के लिए एक खतरा है। चुनावी कदाचार के विभिन्न रूप हैं, जैसे बूथ पर कब्जा करना, मतदाताओं को डराना और वोट खरीदना। मतदाताओं की जागरूकता के अभाव में भी ये तौर-तरीके देश के कई हिस्सों में प्रचलित हैं। चुनावी कदाचार और अन्य कदाचारों से निपटने के लिए कई मोर्चों पर ठोस प्रयासों की जरूरत है। चुनावों को नियंत्रित करने वाले कानूनी ढांचे को मजबूत करने और राजनीतिक दलों एवं उम्मीदवारों की जवाबदेही बढ़ाने वाले चुनाव सुधारों की तत्काल जरूरत है। चुनावी कदाचार का पता लगाने और उसे रोकने के लिए अधिक मजबूत तंत्र बनाने के साथ ही लोगों को जागरूक करना होगा। नागरिकों को उनके अधिकारों और जिम्मेदारियों के बारे में बताने के साथ ही उन्हें लोकतांत्रिक प्रक्रिया में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। इससे मतदान प्रतिशत बढ़ाने में भी सहायता मिलेगी।

(पिछले कुछ वर्षों में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों की संख्या में वृद्धि हुई है। एक गैर- सरकारी संगठन एसोसिएन ADR द्वारा चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों की प्रोफाइल पर के विश्लेषण से पता चलता है कि 2009  में उनके खिलाफ लंबित मामले कुल उम्मीदवारों के 15 प्रतिशत थे, जो 2014 में 17 प्रतिशत और 2019 में बढ़कर 19 प्रतिशत हो गए। चुनाव जीतने में सफल रहे आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों का अनुपात और भी गंभीर तस्वीर पेश करता है। 2009 में विजयी उम्मीदवारों में से 30 प्रतिशत ऐसे थे, जिन्होंने अपने खिलाफ आपराधिक मामले घोषित किए थे। 2014 में विजयी उम्मीदवारों में से 34 प्रतिशत और 2019 में 43 प्रतिशत के खिलाफ आपराधिक मामले थे।
इनमें से बड़ी संख्या में उम्मीदवार हत्या, दुष्कर्म और भ्रष्टाचार जैसे गंभीर आपराधिक आरोपों का सामना कर रहे थे।
एडीआर के अनुसार, 2019 में चुने गए 29 प्रतिशत सांसदों पर गंभौर आपराधिक आरोप थे।
इस बार भी बड़ी संख्या में दागी प्रत्याशी चुनाव मैदान में उतर रहे हैं। पहले चरण में उनका प्रतिशत 16 था, दूसरे में 21 और तीसरे में 18 प्रतिशत।)

सहृदय धन्यवाद (लेखक जदयू के महासचिव एवं पूर्व सांसद हैं)


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मै श्रवण कुमार गौड़, एक अच्छा लेखक हु,मेरे लिखने का तरीका लोगो से जरा हट के है|

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