वन विभाग के आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार उत्तराखंड में नवंबर 2023 से मार्च 2024 तक 32 हेक्टेयर जंगल जल गए थे, लेकिन केवल एक से 26 अप्रैल के बीच 657 हेक्टेयर जंगल जल चुका है।
भारतीय वन सर्वेक्षण ने वर्ष 2004 में अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा के उपग्रह की मदद से राज्य सरकारों को जंगल में आग की घटनाओं की चेतावनी देनी शुरू की थी। 2017 में सेंसर तकनीक की मदद से रात में भी ऐसी घटनाओं की निगरानी शुरू की गई। आग की बढ़ती घटनाओं को देखते हुए 2019 में व्यापक वनाग्नि निगरानी कार्यक्रम शुरू कर राज्यों के निगरानी तंत्र को मजबूत करने की पहल भी की गई। मगर चिंता की बात है कि देशभर में वन क्षेत्रों में आग से वन संपदा को होने वाले नुकसान को रोकने के लिए उपग्रहों से सतत निगरानी के अलावा अन्य तकनीकों के इस्तेमाल के बावजूद आग की घटनाएं बढ़ रही हैं और वन विभाग बेबस नजर आता है।
उत्तराखंड के जंगलों में आग लगने के बढ़ रहे मामले वन पास्थितिकी तंत्र के लिए गंभीर चुनौती पैदा कर रहे हैं। शुष्क मौसम के कारण वातावरण में नमी घटने के अलावा इंसानी हरकतों के चलते भी जंगलों के धधकने का सिलसिला बढ़ गया है। चिंता की बात है कि इन घटनाओं पर नियंत्रण पाना मुश्किल होता जा रहा है। बारिश की कमी और तेजी से बढ़ते तापमान के कारण वनों में छोटे जलाशयों का अभाव होने से आग की घटनाएं बढ़ रही हैं। उत्तराखंड में गढ़वाल, कुमाऊं, अल्मोड़ा, कर्णप्रयाग, चमोली, चंपावत, नैनीताल, पौड़ी, टिहरी, रुद्रप्रयाग सहित कई जनपदों के जंगल जल रहे हैं। स्थिति कितनी भयावह होती जा रही है, यह इसी से समझा जा सकता है कि 30 अप्रैल को गढ़वाल से लेकर कुमाऊं तक एक ही दिन में अड़सठ जगहों पर जंगलों में आग लगी, जिनमें वनाग्नि की सर्वाधिक चौवालीस घटनाएं गढ़वाल और सत्रह कुमाऊं में हुई थीं। वन्य जीव क्षेत्रों में भी सात जगह आग लगी। जंगल माफिया और भू-माफिया भी किसी हद तक जंगलों में आग लगाने के लिए जिम्मेदार रहे हैं।
उत्तराखंड का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 53,483 किलोमीटर है, जिसमें से 86 फीसद पहाड़ों और 65 फीसद जंगल से ढका हुआ है। इसी में से 700 हेक्टेयर से भी ज्यादा जंगल आग की चपेट में आ चुके हैं। चिंता का विषय है कि यह केवल इस साल की कहानी नहीं, बल्कि प्रतिवर्ष राज्य में जंगलों का बड़ा हिस्सा वनाग्नि से तबाह हो जाता है। मगर ऐसे कोई कठोर कदम नहीं उठाए जाते, जिससे ऐसी घटनाओं को समय रहते नियंत्रित किया जा सके। चूंकि जंगलों में लगी आग बढ़ती हुई अब कई जगह रिहाइशी इलाकों तक पहुंच गई है, इसीलिए सरकार के माथे पर चिंता की लकीरें नजर आने लगी हैं। सरकार ने इस वर्ष जंगलों को आग से बचाने के खूब दावे किए थे, जगह-जगह ‘क्रू सेंटर’ भी स्थापित किए गए, लेकिन ‘फायर सीजन शुरू होने से पहले ही जंगलों की सुरक्षा के तमाम दावे धराशायी हो गए। चिंता का विषय है कि हमारे यहां ऐसी घटनाओं से निपटने के लिए कारगर नीतियां नहीं हैं। वन विभाग के आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार उत्तराखंड में नवंबर 2023 से मार्च 2024 तक 32 हेक्टेयर जंगल जल गए थे, लेकिन केवल 1 से 26 अप्रैल के बीच 657 हेक्टेयर जंगल जल चुका है। यानी प्रतिदिन 25 हेक्टेयर के औसत से हरियाली राख हो रही है। इस बीच दो दिन तो ऐसे रहे, जब नुकसान का यह आंकड़ा 75 हेक्टेयर को भी पार कर गया था। वन विभाग के आंकड़ों के मुताबिक उत्तराखंड के जंगलों में एक नवंबर 2023 से 26 अप्रैल 2024 तक आग की कुल 575 घटनाएं हुई, जिनमें केवल कुमाऊं में 313 घटनाओं में 395.92 हेक्टेयर जंगल जले, जबकि गढ़वाल में 211 घटनाओं में 234.45 हेक्टेयर जंगल झुलस गए। इस अवधि में वन्यजीव वाले क्षेत्रों में 51 मामलों में 59.52 हेक्टेयर का नुकसान हुआ।
जंगल की आग से जहां बड़ी मात्रा में वन संपदा नष्ट हो रही है, वहीं इससे पर्यावरण दूषित होने के साथ-साथ लोगों को सांस लेने में परेशानी हो रही है। विशेषज्ञों के मुताबिक जंगलों में दावानल लोगों को जलवायु परिवर्तन का भारी खमियाजा भी भुगतना पड़ता है। प्राणी सर्वेक्षण विभाग का मानना है कि उत्तराखंड के जंगलों में आग के कारण जीव-जंतुओं की साढ़े चार हजार से ज्यादा प्रजातियों का अस्तितव खतरे मे पड़ गया है। वैसे तो जंगलों में आग लगने के प्राकृतिक कारणों में सूखे पेड़ों या बांस का रगड़ खाना तथा पत्थरों से निकली चिंगारी या बिजली गिरना शामिल हैं, लेकिन पर्यावरण मंत्रालय के तहत आने वाले वन अनुसंधान संस्थान की रपट के मुताबिक भारत में पंचानचे फीसद जंगल की आग मानव निर्मित है। उत्तराखंड के जंगलों में आग लगने का बड़ा कारण चीड़ के पेड़ों की बहुतायत और घने ज्वलनशील कूड़े का जमाव है। गर्मियों में बड़ी मात्रा में चीड़ की टहनियां और सूखे पत्ते इकट्ठा हो जाते हैं, जो आग के प्रति अत्यधिक संवदेनशील होते हैं। जंगल में आक्सीजन की प्रचुर मात्रा होती है और सूखे पेड़ों, इाड़ियों, घास-फूस, कूड़े आदि के रूप में ईंधन की आपूर्ति भी निरंतर होती रहती है। ऐसे में मामूली- सी चिंगारी को भी दावानल बनते देर नहीं लगती।
शुष्क मौसम में शुष्क वनस्पति और जंगल में चलती तेज हवाएं इस आग के फैलने में बड़ी भूमिका निभाते हैं। यही आग जब रिहाइशी बस्तियों तक पहुंचती है तो सब कुछ तबाह कर जाती है। उत्तराखंड में मवेशियों के लिए नई घास उगाने के लिए जंगलों में आग लगाने की कुप्रथा भी है। हर साल बड़ी संख्या में ऐसे मामले सामने आते हैं, जिनसे पता चलता है कि चरवाहे प्रायः नई घास उगाने के उद्देश्य से सूखी घास में आग लगाते हैं।
उत्तराखंड के जंगलों में आग की घटनाओं पर काबू पाने में विफलता का एक बड़ा कारण यह भी है कि वन क्षेत्रों के रहवासी अब वन संरक्षण के प्रति उदासीन हो चले हैं। इसकी वजह काफी हद तक नई वन नीतियां भी हैं। हालांकि वनों के संरक्षण और उनकी देखभाल के लिए हजारों वनरक्षक नियुक्त किए जाते हैं, लेकिन लाखों हेक्टेयर क्षेत्र में फैले जंगलों की हिफाजत करना इनके लिए सहज और आसान नहीं होता। इसलिए जरूरी है कि वनों के आसपास रहने वालों और उनके गांवों तक जन-जागरूकता अभियान चलाकर वनों से उनका रिश्ता कायम करने के प्रयास किए जाएं, ताकि वे बनों को अपने सुख-दुख का साथी समझें और इनके संरक्षण के लिए हर पल साथ खड़े नजर आएं।
पर्यावरणविदों का मानना है कि जंगलों को आग से बचाने के लिए रिमोट सेंसिंग अग्नि चेतावनी प्रणाली का इस्तेमाल करने, नियंत्रित तथा निर्धारित दहन के माध्यम से बायोमास्क हटाने जैसे कदम उठाए जाने की सख्त दरकार है ड्रोन से जंगलों की निरंतर निगरानी की पुख्ता व्यवस्था की जानी चाहिए, ताकि जंगलों में जानबूझकर आग लगाने वाले असामाजिक तत्त्वों पर नकेल कसी जा सके। वनाग्नि की घटनाओं को रोकने के लिए लोगों को जागरूक किया जाना भी अत्यंत आवश्यक है।
सहृदय धन्यवाद–”योगेश कुमार गोयल”